इक वो दिन थे
जब रोज़ बीसों घंटे
धूप भिखरी पड़ी रहती थी
आँगन में
काश
मैंने धूप के कुछ सिक्के
उठाके
जमा किये होते
किसी गुल्लक में
ऐसे किया होता तो
अब जब हर दोपहर
तीन बजे
रात होने लगती है
तो गुल्लक फोड़ के
सौदा करता
जल्दबाज़ दिन से
के
कुछ देर और ठहरा करे
क्या है की
मुझे शाम के चार बजे की चाय
यूँ
अँधेरे में पीने की
आदत नहीं है न
जब रोज़ बीसों घंटे
धूप भिखरी पड़ी रहती थी
आँगन में
काश
मैंने धूप के कुछ सिक्के
उठाके
जमा किये होते
किसी गुल्लक में
ऐसे किया होता तो
अब जब हर दोपहर
तीन बजे
रात होने लगती है
तो गुल्लक फोड़ के
सौदा करता
जल्दबाज़ दिन से
के
कुछ देर और ठहरा करे
क्या है की
मुझे शाम के चार बजे की चाय
यूँ
अँधेरे में पीने की
आदत नहीं है न
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