हर सुबह
जब मैं
अपने आँखों की खिड़कियाँ खोलता हूँ
उस चेहरे का मंज़र देखने
तो
पर फड़फड़ाता हुआ
आ बैठता है
सीने में
इतना हल्ला मचाता है
और
ज़हन में रखी चीज़ें
उड़के बिखरने लगती हैं
जान निकली जाती है
हाँ
लाख मनाऊं तो भी नहीं सुनता
लाख भगाऊँ तो भी नहीं उड़ता
इसके रहते
न सांस मिलती है
न नब्ज़ चलती है
इस बदमिजाज कबूतर
का नाम
इश्क़
न जाने किसने रख दिया
उफ़!!
कोई मुझे warn तो करता!?
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