Friday, May 29, 2020

379. संभलके / Sambhalke

ये जिस्म अपना
बातूनी है बहुत

खामोश रहके भी
कहानियाँ सुनाता है
अफ़वाएँ फैलाता है

ऐसा है के
ये कुछ भी कहे
या कुछ न कहे
औरों को सुनाई देता है
कुछ न कुछ
और कुछ न कुछ
समझ आ ही जाता है

उस बच्ची के चेहरे पे मुस्कान
इस लड़के के चेहरे पे मेक-अप
उस औरत के सर को ढकता हिजाब
इस आदमी के माथे पे तिलक
उस बुज़ुर्ग का खुद से बातें करना
उस लड़की के पैर और उस पैर पे उगते बाल?

ये सभी तो
बेख़बर
बेखयाल
चले जा रहे हैं
सड़कों पर

पर लोग हैं कि
हर चीज़ में
कहानियाँ ढूँढते सुनते जाते हैं

तभी कहते हैं
सोच समझके निकला करो
घर से

क्या पता
क्या पढ़ ले बेकाम दुनिया
तुम्हारे लहजे में

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