Saturday, June 25, 2016

322. Seduced


a new one
walks towards me
with the telling swagger
of the arrogant

little does he know
that
I am a serial dater
of the sorrily seductive

predictably
he smiles sweetly
and comes close
to talk dirty in my ear

I giggle

all hopes
follow the same pattern
showing impossible promise
and I give in
only to grow wise and bored
in a hurry

but this time
I promise
this compellingly hot one
in front of me
is my last hope

maybe
I will be better off
hopeless

321. नेता


कभी तो तोल मोलके बोल निकम्मे
तू अपनी पोल खोलके बोल निकम्मे

मर्ज़ी से घयाल हुए जाते हैं कितने
अर्ज़ी दे कायल हुए जाते हैं कितने

शहद मे डुबोके झूठी उम्मीदें फिर से
इनमे ज़हर घोल के बोल निकम्मे

सोचने समझने से ऊब जाते हैं यूँ ही
खाली कटोरों में डूब जाते हैं यूँ ही

बस इन्हीं के लायक हैं हम - तेरे
खोखले गोल गोल के बोल निकम्मे

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inspired by the unsettling political rhetoric world over
where even the well-meaning can only survive by dropping down to the level of the poisonous rest
there was an old adage - yatha raja thata praja (as be the ruler, so be the people); I think the converse is true (as be the people, so be the ruler).

PS: A special shout-out to Chitralekha for reminding me the elusive word of the day - लायक 

Thursday, June 23, 2016

320. The tyranny of choices

my heart goes out for
Sansa
all she wanted
was to be queen
and she gambled her world for it
and when
she looked back
after her choice failed
she found
no-one at home anymore
she found
no home anymore
she found
no her anymore

i pray
all my choices
come with disclaimers

--

some pop-nerd thoughts are allowed
if romeo and laila are mainstream acceptable references
well
GoT should too, as should Harry Potter

319. A routine encounter

it happened again
today

you know
how sometimes
you look at a word
and you wonder
was it always spelled the same
did it always sound the same
a word you encounter often
and yet seldom pause to register
and suddenly
it pops out at you
and
you keep looking at the word
in amusement and amazement
and you keep saying it to yourself
until you can restore it to familiarity
and begin ignoring it again

yes
it happened again
i saw a familiar face smile at me
from behind the counter
at the bar
at the end of the street
and for a brief moment
he seemed unusually adorable
only
till I stared
long enough

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The word that got me today was
'ardentness' 
i think i am in love with it
did this word always exist?! it does seem familiar
I have spent the last 5 minutes staring at its spelling 
and saying it to myself :)
I am totally bonkers!!

Wednesday, June 22, 2016

318. Pain art


let us come together and flaunt our pain
who cares that they do not shine or rhyme
so what if yours is silent and stone cold
and mine too many colors and vowels at a time

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317. खिड़की जो खोली

खिड़की जो खोली
तो रैना की झोली -
में तारों की टोली दिखे आसमाँ पे

यहाँ क्यों खडें हम
चलो अब उड़ें हम
अंबर चढ़ें, हम भी जाए वहाँ पे

बादल की नैय्या पे
बैठे चाँद भैया के
बाजू  में बैठी है Ana

कहती है सितारें
अकेले है बेचारे
चल, साथ अब तू भी आना

यहाँ क्यों खडें हम
चलो अब उड़ें हम
अंबर चढ़ें, हम भी जाए वहाँ पे

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सारी रात अंबर पे भटकेगी नैय्या
किसी परबत किनारे फिर अटकेगी नैय्या

गाने गुनगुनाएँगे चीखेंगे चिल्लाएँगे
और ज़ोरों से ताली बजाएँगे
नींद बिगड़ेगी तो जंगल मे बैठे सारे उल्लू
गुटुर गुटुर गाली सुनाएँगे

वहाँ से फिर दौड़ें
अपनी नैय्या को मोड़ें
अपने निशाँ छोड़ें ठंडी हवा पे

यहाँ क्यों खडें हम
चलो अब उड़ें हम
अंबर चढ़ें, हम भी जाए वहाँ पे
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चाँद भैया से पूछेंगे सवाल अपने
कहाँ से लाते हैं वो रातों को सपने
कभी पीपल उनकी पकड़े कलैया
तारों की बड़ी उलझी भूल भुलैया

दो चार तारें चुराके रख ले निशानी
सुबह तकिया के नीचे छुपा दे कहानी

यहाँ क्यूँ खड़े हम
चलो, अब उड़े हम
अंबार चढ़े, हम भी जाए वहाँ पे

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Feb 2007
Can't remember
a. What drove me to this?
b. Who is Ana?
:O


316. हमनशीं

दो आहें हौले से छटके बजती हैं
मेरी नम-ओ-नर्म नज़रों से उलझती हैं

आधी खुली सी
आँखें धुली सी
बस बच गयी भारी आहों की निशानी
है आब हर नज़र, है हर खाब पानी

रोज़ की तरह फिर तुमने रात मल दी है
और इसे किसी कोने मे खोने की जल्दी है

छेड़ दे तो बात ख़त्म होने का डर है
छोड़ दे तो रात ख़त्म होने का डर है

नटखट से ऐठे
चौखट पे बैठे
लबों पे सहमी सी बसी बेज़ुबानी
कभी बेरहमी भी लगे मेहरबानी

--
July 2007!?


315. बदल सा गया

इक पल को मूंदी पलकें तो ज़माना बदल सा गया
क्या पता बदली नज़रिया या नज़ारा बदल सा गया

वो गली मिली ही नहीं जिससे था गुज़रना मुझे
अब बताते है सब मुझे के वो नक़्शा बदल सा गया

भटकी राहों को सज़ा दो, ख़ाता रही की नहीं
गुम था, खबर न हुई - कब रास्ता बदल सा गया

हाथ हाथों में है, मैने सर उठाया, देखा
साथ मेरे कोई और है,प्यार मेरा बदल सा गया

तुम मिले हो फिर भी है मुझे क्यों इंतेज़ार तेरा
लगता क्यों है, तुम तुम नहीं, चेहरा बदल सा गया

कितने दफ़ा दिल लगाया; हूँ ख़फा दिल ही से अब
हर दफ़ा बेवफा दिल का इरादा बदल सा गया

आदतें बनाना छोड़ना बात आसाँ तो नहीं
गिला है क्यों मेरा जहाँ यूँ दुबारा बदल सा गया

दास्ताँ होगी ख़त्म अब ये मुझे यकीं तो नहीं
ऐसे में क्या बयाँ करूँ, क्या क्या बदल सा गया

--
Mar 2007
:) Change is the only constant!? (as are meter issues)

Saturday, June 04, 2016

314. लिखते रहो...

वजह गुज़र जाए
तो क्या है
ख़याल है तो बेवजह लिखते रहो

वक़्त बिखर जाए
तो क्या है
रात हो शाम हो या सुबह लिखते रहो

वहम उतर जाए
तो क्या है
भटके से अब हर जगह लिखते रहो

पर लिखते रहो...

हम न पूछेंगे क्यों लिखते हो!

--

A nine-year old thought. My archives say 2 June 2007.
I wonder why it stayed buried in there.
And the scouting through the archives continues. Maybe a few more will resurface.
Bad writing never goes out of fashion. :)

But yep, it seems I needed to tell myself to keep writing back then too!