Wednesday, June 22, 2016

316. हमनशीं

दो आहें हौले से छटके बजती हैं
मेरी नम-ओ-नर्म नज़रों से उलझती हैं

आधी खुली सी
आँखें धुली सी
बस बच गयी भारी आहों की निशानी
है आब हर नज़र, है हर खाब पानी

रोज़ की तरह फिर तुमने रात मल दी है
और इसे किसी कोने मे खोने की जल्दी है

छेड़ दे तो बात ख़त्म होने का डर है
छोड़ दे तो रात ख़त्म होने का डर है

नटखट से ऐठे
चौखट पे बैठे
लबों पे सहमी सी बसी बेज़ुबानी
कभी बेरहमी भी लगे मेहरबानी

--
July 2007!?


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