Monday, November 28, 2016

355. Flux

there they went
again

edited movies with happy endings
filtered pictures with unreal moments
telling them
how their lives were not enough
how those others
were living the worlds
meant for them
undeservingly

disgusted
that change happened too soon
that they had to change in a hurry

dissatisfied
that change did not happen enough
that the world did not change enough for them

there
they went
and
sought
click-bait messiahs
to change the world overnight
to save their world from change

and now
they are left
with their choices
trying to stop time enough
to scrub the reality
they built
in panic

the more things change
the more they stay the same

Tuesday, November 22, 2016

354. Caught off-guard

he should have
done his research
before he set out

and now
here he is
too much in love
and not in the habit
of dealing with it

someone
should have warned him then
that
where he was going
there would be no porters
to carry his emotional baggage

353. दौड़ दौड़के

दौड़ दौड़के
अधूरी नींद तोड़के
और अपने होश छोड़के
खर्च की है सुबह

हर ओर से
न जाने कितने शोर से
ज़रा सी जाँ बटोरके
निकले हैं बेवजह

होगी पड़ी यहीं कहीं
जहाँ कहीं वहीं सही
वो खाब की जो रात थी
होगी यूँही गिर पड़ी
अधखुली निगाहों से
रोज़ की तरह
---
2011
too much work, too little sleep
maybe?!




352. Hunting for yesterdays

Did she smile
to herself
while she looked around
at the silent town
under the orange sky?

The winds
with the scent of familiarity
always carry remnants
of seasons gone by

The seasons
which come by
to do their turn
disinterested and servile,
much like the straight-faced guards
standing
indifferent to the fleeting audience

Did she
wring the seasons
to bottle the scent of past memories
to take back with her?

Did she
flap the winds
to gather stardust
from shooting stars
with wishes yet to fulfill?

Did she
settle the accounts
of all the nights in her city
spent missing the distant warmth
from the pouring
of yellow-hot slag?

Did she
drink
to things
that will never be again,
and
to things
that never were,
and
to those
that are yet to be?

And when
she was doing
all this,
did she
think of me?

Did she?
---
Sometime 2011
I have a feeling -
this has got to do with Pidi and Jampot. :)



353. आज माना ऐ ज़माना

आज माना ऐ ज़माना आज़माने की कमी है
सब ज़माने को यार अपना बस बुलाने की कमी है
दिल मिलान है सभी को बस बहाने की कमी है
है बहाना भी बस निगाहें अब उठाने की कमी है

दोस्ताना है इधर भी दोस्ताना है उधर भी
दोस्ताना है मगर क्यों छुपाते खुद हमीं हैं
जज़्बा तो है हर इक दिल में बस जताने की कमी है
आज माना ऐ ज़माना आज़माने की कमी है

रस्ता रस्ता है तरसता प्यासा प्यासा हर इक मंज़र
प्यासा प्यासा आज अंबर प्यासी प्यासी ये ज़मीं है
मैकदा दिल है साक़ी भी है बस पैमाने की कमी है
आज माना ऐ ज़माना आज़माने की कमी है

---
Sometime in 2006
I actually have a note under saying - "our prejudices gift us our foes & our tolerance, our friends."
Preachy much!? As always... :D

352. Dolls that cannot sleep


truth has been a stranger to them
reality is stranger still
they know not the world behind tinted windows
the many-hued world - good, they know not
all they know is brown
polyethene bags can be such playthings
I know not their world too
their longings their only belongings
other than the broken barbies
Dolls that cannot sleep

life teaches them arithmetic
ten peppermints or 1 cookie and an eclair
tough choices we never had to make
cringing cold expressions they see on faces
they never knew the world could be otherwise
Good- they do not care
they smile & rush home
to cold nights & wailing younger siblings-
whose fate is the same
as their broken barbies
Dolls that cannot sleep

--
Sometime in 2006
I wonder what triggered this thought
Hmmm...!

351. हम आ गए हैं

हम आ गए हैं
सुरमई आसमाँ उड़ाने

हम आ गए हैं
इक नई दास्ताँ उगाने

दिल मिलाने झिलमिलाने
जगमगाने डगमगाने
गुनगुनाने धुन सुनाने
हम आ गए हैं

छोड़ दो बातें पुरानी
सब सीनों में जाँ जलाने
उम्मीदों के आशियाने
हम आ गए हैं
---
अपने अपने शहरों से थोड़ी थोड़ी धुप चढ़ाएँगे
अजनबी क़दमों से दोस्ती करेंगे धुल उड़ाएँगे

कुछ रंग तेरे कुछ रंग मेरे होंगे
शाम-ओ-सवेरे अब संग तेरे होंगे

किसी प्यार के हिस्से होंगे
और थोड़े गुस्से होंगे
सैकड़ों ऐसे किस्से बोने
हम आ गए हैं

दिल मिलाने झिलमिलाने
जगमगाने डगमगाने
गुनगुनाने धुन सुनाने
हम आ गए हैं

---
मई 2007
:)
dramatic anthem type thing!!

350. And it goes on...

day up, day down
two smiles, half a frown
so many verbs, one noun
Hello!

seven stones, some wood
that bad! so good!
I had; you should!
Yellow!

four walls, one floor
aww god, such a bore
five yawns, and a snore
Pillow!

some éclairs, some lollipops
one word, many full stops
just one Calvin and Hobbes
Challooo...!!

---
Throwback. Another one from the archives.
Sometime in 2006
Just to make 350 represent who I was and still am

Thursday, November 10, 2016

349. अभी न लिखो दास्ताँ

अभी न लिखो दास्ताँ के ये तो बदलती है बहुत
कभी महक उठती है कभी ज़हर उगलती है बहुत

शर्त लगाया न करो अपने किसी उम्मीद पे यूँ
जाने कब रह रहके टूटे के जाँ निकलती है बहुत

कितने दफा सब कुछ किसी जुनूँ में जला गए
पूछो सबब तो बस ये के दुनिया जलती है बहुत

बड़े ग़ौर से तरकीब बनाये जाते हैं हर रोज़
इस गुमाँ में गुमराह हैं के अपनी चलती है बहुत

अभी न लिखो दास्ताँ के ये तो बदलती है बहुत
कभी महक उठती है कभी ज़हर उगलती है बहुत 

Tuesday, November 08, 2016

348. बक्सा

बक्से में
किताब बहुत से बांधके रखे थे
मैंने
के
जब वक़्त मिले
खोलके आज़ाद करूंगा
सारे क़ैद दास्ताँ
कभी

इत्मेनान से
बैठे बैठे
इंतज़ार
कर रहे थे
इक अरसे से
वो सारे क़िताब
सही वक़्त के लिए

पीले पड़ने लगे थे कागज़

इक दिन
बक्सा खोला
तो देखा
के काफी बुज़ुर्ग
हो चुके थे
सारे दास्ताँ
के बस हल्का सा छू जाऊँ
तो टूटके बिखर जाए

उनको
देखकर
मैं मुस्कुराने लगा

हम-दास्ताँ लग रहे थे
मुझे

मैं भी तो
सही वक़्त के इंतज़ार में
इक बक्से में
बड़े सब्र से इंतज़ार कर रहा हूँ
के वक़्त आने पर
अपनी दास्ताँ रिहा करूंगा

क्या
इक दिन
जब आँखें खोलूँगा
तो मैं भी
मिलूंगा खुद को
वक़्त में पका हुआ
पीला पड़ता हुआ
मेरी दास्ताँ नाज़ुक सी बुज़ुर्ग सी

और
हलके से
जो छू जाए जो कोई
मुझे
क्या मैं भी
टूटके बिखर जाऊँगा

347. नज़र

शायद बेवकूफी खुद की साफ़ आ रही है नज़र
तभी शर्मिंदगी से दुनिया झुका रही है नज़र

उधार में कुछ झूठी सुकूँ मिली थी जिसे
अश्क़ की रवायतों में चुका रही है नज़र

इस कदर उलझी है कही सुनी दास्तानों में
हक़ीक़त जो दिखे तो चोट खा रही है नज़र

पोंछ दो दाग बेमतलब कायदों के अब तो
दिल को मलके देखो जो दिखा रही है नज़र