अभी न लिखो दास्ताँ के ये तो बदलती है बहुत
कभी महक उठती है कभी ज़हर उगलती है बहुत
शर्त लगाया न करो अपने किसी उम्मीद पे यूँ
जाने कब रह रहके टूटे के जाँ निकलती है बहुत
कितने दफा सब कुछ किसी जुनूँ में जला गए
पूछो सबब तो बस ये के दुनिया जलती है बहुत
बड़े ग़ौर से तरकीब बनाये जाते हैं हर रोज़
इस गुमाँ में गुमराह हैं के अपनी चलती है बहुत
अभी न लिखो दास्ताँ के ये तो बदलती है बहुत
कभी महक उठती है कभी ज़हर उगलती है बहुत
कभी महक उठती है कभी ज़हर उगलती है बहुत
शर्त लगाया न करो अपने किसी उम्मीद पे यूँ
जाने कब रह रहके टूटे के जाँ निकलती है बहुत
कितने दफा सब कुछ किसी जुनूँ में जला गए
पूछो सबब तो बस ये के दुनिया जलती है बहुत
बड़े ग़ौर से तरकीब बनाये जाते हैं हर रोज़
इस गुमाँ में गुमराह हैं के अपनी चलती है बहुत
अभी न लिखो दास्ताँ के ये तो बदलती है बहुत
कभी महक उठती है कभी ज़हर उगलती है बहुत
No comments:
Post a Comment