Tuesday, November 08, 2016

348. बक्सा

बक्से में
किताब बहुत से बांधके रखे थे
मैंने
के
जब वक़्त मिले
खोलके आज़ाद करूंगा
सारे क़ैद दास्ताँ
कभी

इत्मेनान से
बैठे बैठे
इंतज़ार
कर रहे थे
इक अरसे से
वो सारे क़िताब
सही वक़्त के लिए

पीले पड़ने लगे थे कागज़

इक दिन
बक्सा खोला
तो देखा
के काफी बुज़ुर्ग
हो चुके थे
सारे दास्ताँ
के बस हल्का सा छू जाऊँ
तो टूटके बिखर जाए

उनको
देखकर
मैं मुस्कुराने लगा

हम-दास्ताँ लग रहे थे
मुझे

मैं भी तो
सही वक़्त के इंतज़ार में
इक बक्से में
बड़े सब्र से इंतज़ार कर रहा हूँ
के वक़्त आने पर
अपनी दास्ताँ रिहा करूंगा

क्या
इक दिन
जब आँखें खोलूँगा
तो मैं भी
मिलूंगा खुद को
वक़्त में पका हुआ
पीला पड़ता हुआ
मेरी दास्ताँ नाज़ुक सी बुज़ुर्ग सी

और
हलके से
जो छू जाए जो कोई
मुझे
क्या मैं भी
टूटके बिखर जाऊँगा

No comments: